भावार्थ : जातिवाद केवल एक पाखण्ड सामान है जिसका सदा दुरूपयोग किया जाता है. मनुष्य की कार्यशक्ति के आधार पर ही इसका निर्धारण होना चाहिए.
सांप के डंसने से केवल एक व्यक्ति के शरीर में ही विष फैलता है लेकिन एक जातिवादी के डंस लेने से एक बारगी समूचा समाज विषाक्त हो जाता है । जातिवाद का जहर हमेशा सामूहिक या समष्टिगत प्रभाव दिखाता है ।
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है – ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः’ (अर्थात चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुर्द्र । गुण एवं कर्म के आधार पर मेरे द्वारा रचित है ।) भगवान् बुद्ध और महावीर ने भी कहा है – ‘मनुष्य जन्म से नहीं वरन कर्म से ब्राह्मण या शूद्र होता है ।’ पहले ब्राह्मण का पुत्र अगर व्यवसाय करता था तो वह वैश्य हो जाता था । सभी आपस में मिलजुल कर रहते थे लेकिन कुछ कट्टर जातिवादियों ने इसके मूल स्वरूप में परिवर्तन ला दिया । धीरे-धीरे यह विभाजन कर्म के अनुसार न होकर जन्म के आधार पर होने लगा । शूद्र-पुत्र को, क्षत्रिय का कार्य करने की प्रवृत्ति रखने पर भी उसे शूद्र का ही कार्य करना पड़ता था व् जाती के बाहर विवाह करना या अन्य जाती वालों के साथ खान-पान करना धर्म के विरुद्ध घोषित कर दिया गया जिससे समाज में भाईचारे का सम्बन्ध ख़त्म हो गया और जातिवादी झगड़े होने लगे । यहीं से जातिवाद की गलत परम्परा चल पडी । मध्यकालीन भारत में यह जातिवाद सुरसा की तरह मुंह फैलाए हुए था । जातिवाद देश के विकास में सबसे बड़ा बाधक है । इसके सहारे जहां एक ओर प्रतिभाहीन व्यक्ति ऊंचे-ऊंचे पदों को सुशोभित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिभावान दर-दर की ठोकरें खाते-फिरते हैं । इससे राष्ट्रीय क्षमता का हास होता है । देश अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में पिछड़ जाता है । सामाजिक एकताक इ स्थान पर समाज खण्ड-खण्ड में विभक्त नजर आता है । देश की आजादी खतरे में पड़ जाती है ।
भारत को सुखी और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए जातिवाद का सम्पूर्ण विनाश आवश्यक है । इसके लिए चलचित्र, साहित्य, प्रेस, समाचार-पात्र, टेलीविजन आदि प्रचार साधनों के द्वारा जाती-विरोधी प्रचार करने होंगे । अंतर्जातीय विवाओं को प्रोत्साहित करना होगा । सरकार द्वारा अस्पृश्यता एवं छुआछूत को एक दंडनीय अपराध तो घोषित किया गया है लेकिन समाज में अभी तक इसे पूर्ण मान्यता नहीं मिली है । अब भी बहुत से ऐसे मंदिर हैं, जहाँ हरिजनों का प्रवेश वर्जित है एवं बहुत-सी ऐसी जातियां हैं, जिनकी छाया को भी अपवित्र समझा जाता है । इसके समाधान के ले सभी राजनीतिक दलों, समाज-सुधारकों, धार्मिक संस्थाओं को कारगर प्रयास करने होंगे । राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, महात्मा गांधी, संत बिनोवा भावे आदि के बताए मार्ग पर चलकर ही इस लक्ष्य को पाया जा सकता है । आम चुनावों में नेताओं द्वारा जात-पांत का नारा दिया जाता है । सरकार को इसे कानूनी रूप से रोकना होगा । पं० जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में -‘भारत में जात-पांत प्राचीनकाल में चाहे कितनी भी-उपयोगी क्यों न रही हो, परन्तु इस समय सब प्रकार की उन्नति के मार्ग में भारी बाधा और रुकावट बन रही है । हमें इसे जड़ से उखाड़कर अपनी सामाजिक रचना दूसरे ही ढंग से करनी चाहिए ।’
सारांशतः जातिवाद भारत के माथे पर कलंक है जिसे मिटाकर ही हम एक शक्तिशाली भारत की रचना कर सकते हैं । वस्तुतः मनुष्य ईश्वर की बनाई गयी सर्वोत्कृष्ट रचना है । इसको पैदा करते समय ईश्वर ने कहीं जाती का निशाँ नहीं रहने दिया है । यह हम लोगों की खुराफात या स्वार्थपरता या प्रपंच है की हमने जातियों में मानव को बाँट दिया है । अगर हम जातियों में मानव को बाँटते हैं तो मानवता को भी जातियों में क्यों नहीं बाँटते हैं ? हम कहीं-कहीं मानवतावादी क्यों हो जाते हैं ? मानववादी या मानवतावादी होते समय हमें जातियों की परकल्पना से दूर हटना पड़ता है । यह प्रवृत्ति क्षणिक क्यों होती है ? इसमें किस कारण से स्थायित्व नहीं है? हम नीच जातियों से उस मानवता की अपेक्षा क्यों रखते हैं जिसकी अपेक्षा ऊंची जातियों से भी रखते हैं । फिर, हम बीमार अवस्था में ब्लड का ग्रुप मिल जाने पर भूमिहार या ब्राह्मण या राजपूत जाती का होने के बाद भी निम्न जाती के खून को अपने खून के ग्रुप से मिल जाने के बहाने से क्यों मिला लेते हैं । अगर सच-पूछा जाय तो जातिवाद पाखण्ड के सिवाय और कुछ नहीं है । आज जिस मनुवाद पर विपक्षियों का प्रहार होता है वस्तुतः वह मनुवाद पाखण्ड का ही पर्याय है । नीची जाती के लोग जब काफी उठ जाते हैं तो ऊंची जाती के लोग उनकी चाकरी करने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष क्यों करने लगते हैं ? ऊंची जाती के लोग जब काफी गिर जाते हैं तो ऊँची जाती वाले भी उनकी ओर ताकना क्यों मुनासिब नहीं समझते हैं ? जातिवाद छलावा है । इस बात की पुष्टि में हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं।