मौर्य काल

केंद्रीय प्रशासन

मौर्य प्रशासन शासन की एक केंद्रीकृत प्रणाली थी, जिसमें प्रशासन का केंद्र राजा था। वह कार्यकारी, प्रशासनिक और न्यायपालिका के प्रमुख थे। मंत्रि परिषद (परिषद) का एक उल्लेख अर्थशास्त्र और अहोका के शिलालेख (तीसरा, चौथा और छठा) में मिलता है। पतंजलि ने अपने ‘महाभाष्य’ में चंद्रगुप्त सभा का उल्लेख किया है। दिव्यावदान के अनुसार, बिन्दुसार के पास 500 अमात्य थे।

मंत्रिपरिषद के सदस्यों के चुनाव में उनके चरित्र की भली -भांति जाँच की जाती थी, जिसे “उपधा परिक्षण कहा जाता था।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र
मौर्यों का इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत अर्थशास्त्र है।
कौटिल्य (विष्णु गुप्त, चाणक्य) ने इस ग्रंथ की रचना संस्कृत में की है।
चाणक्य तक्षशिला के शिक्षा केंद्र में अध्यापक का कार्य करते थे।
पुराणों में इन्हे द्विजर्षभ (श्रेष्ठ ब्राह्राण )न कहा गया है।
चाणक्य को भारत का मैकियावेली भी कहा जाता है।
‘अर्थशास्त्र’, राजनीति और लोक प्रशासन पर लिखी गई प्रामाणिक पुस्तक है।
अर्थशास्त्र में 15 अधिकरण, 180 प्रकरण तथा 6000 श्लोक है।
यह गध तथा पध दोनों शैली में है, जिसे आमतौर पर महाभारत शैली कहा जाता है।  

प्रान्तीय प्रशासन

मौर्य साम्राज्य को पांच प्रमुख प्रांतों में विभाजित किया गया था, उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला, दक्षिणापथ की सुवर्णगिरि, अवंती की उज्जयिनी, कलिंग की तोसली और प्राची (मध्य प्रदेश) की राजधानी पाटलिपुत्र थी। तक्षशिला उत्तर -पश्चिम और मध्य एशिया के लिए आने -जाने का मार्ग था। उज्जैन उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत जाने वाला मार्ग था। सुवर्णगिरि (सोने का पहाड़) कर्नाटक में सोने की खान के लिए उपयोगी था।

प्रान्तपति राजकीय परिवार के लोगों से नियुक्ति किए जाते थे। उन्हें कुमार या आर्यपुत्र कहा जाता था। प्रांतीय शासन में एक मंत्रिपरिषद भी थी, जिसका केंद्र से सीधा संपर्क था। मौर्य साम्राज्य में प्रांतों को चक्र कहा जाता था, जिन्हें कई मंडलो में विभाजित किया गया था। उनके पास अधिकारी थे जिन्हें महामात्य कहा जाता था। मंडल जिलों में विभाजित थे, जिन्हें विषय या आहर कहा जाता था। प्रादेशिक, रज़ुक और युक्ता इसके साथ जुड़े अधिकारी थे।

नगर प्रशासन

मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के बारे में लिखा है कि यह एक विशाल और सुंदर शहर है। यह एक विशाल प्राचीन क्षेत्र से घिरा हुआ है। लकड़ी और कच्ची ईंटों से बने दो और तीन मंजिला घरों में 570 गढ़ और 64 द्वार हैं। राजा का महल भी लकड़ी से बना है, जो पत्थर की नक्काशी से अलंकृत है। यह पक्षियों और उधोगो के लिए बनाए गए कचरे से घिरा हुआ है।

मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन का वर्णन किया जिसके अनुसार शहर का प्रमुख अधिकारी ‘एस्ट्रोनोमोई’ था और जिले का अधिकारी ‘एग्रोनोमोई’ था।

न्याय प्रशासन

मौर्य काल में, दीवानी अदालत को ‘धर्मस्थली’ और आपराधिक न्यायालय को ‘कण्टकशोधन’ कहा जाता था। किसी धार्मिक न्यायालय के न्यायाधीश को धर्मस्थ या व्यावहारिका कहा जाता था, और न्यायलय के न्यायाधीश को प्रदेष्टा कहा जाता था।

धर्मस्थीय न्यायलयों में न्याय धर्मशास्त्र से दक्ष तीन धर्मस्थ व्यावहारिक एवं तीन अमात्य मिलकर करते थे। कण्टकशोधन न्यायालयों में तीन प्रदेष्टा एवं तीन अमात्य मिलकर न्याय करते है। चोरी, डकैती, लूट की वारदातों को साहस कहा जाता था। कुवचन, मानहानि, हमले से संबंधित मामलों को “वाक पुरुष” कहा जाता था। व्यावहारिक महामात्र को नगर न्यायाधीश और जनपद न्यायाधीश को रज्जुक कहा जाता था।

कृषि

सरकारी भूमि को ‘सीता’ कहा जाता था और इस भूमि पर उत्पादन कार्य के लिए सीताध्यक्ष नामक एक अधिकारी को नियुक्त किया जाता था जो दास श्रमिकों (मजदूरी करने वाले) और दंड रक्षकों (अपराधियों) की मदद से खेती करते थे। पहली बार मौर्य काल में कृषि में बड़ी संख्या में शूद्रों को रोजगार मिला था। सीता गाँव में नट, नर्तक, गायक, वादक और कहानीकारों का प्रवेश वर्जित था। मेगस्थनीज के अनुसार, राजा भूमि के मालिक थे। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) और उपवास (काश्तकार) के बीच एक स्पष्ट अंतर किया जाता है। राज्य की ओर से सिंचाई की समुचित व्यवस्था की गई थी जिसे सेतुबंध कहा जाता था। सिंचाई कर को ‘उदकभग’ कहा जाता था। जिसकी दर उपज के 1/5 से 1/3 तक थी। वर्षा मापने के लिए अरत्नी नामक उपकरण का उपयोग किया जाता था। बिना वर्षा की खेती वाली भूमि को ‘अदेवमातृक’ कहा जाता था।

वाणिज्य एवं व्यापर

वाणिज्य और व्यापार पर राज्य का नियंत्रण था। इस अवधि में पूर्वी तट पर ‘ताम्रलिप्ति’ एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था, जहाँ से श्रीलंका के लिए जहाज खुलते थे। पश्चिमी तट पर भड़ोच और सोपारा प्रमुख बंदरगाह थे। कौटिल्य ने स्थल मार्ग की अपेक्षा नदी मार्ग को तथा उत्तर के मार्गो की तुलना में दक्षिण के मार्ग को ज्यादा महत्वपूर्ण माना है, क्योंकि दक्षिण में स्वर्ण और बहुमूल्य धातुएँ पाई जाती थीं।

इस अवधि के दौरान, सड़क निर्माण के लिए ‘एग्रोनोमोई’ नामक एक अधिकारी जिम्मेदार था। वे वस्तुएं जिनका राज्य स्वंय व्यापर करता था, राजपण्य कहलाती थी। व्यापारियों का नेता सार्थवाह कहलाता था। मौर्य काल में, घरेलू उत्पादों पर 4% और आयातित वस्तुओं पर 10% ब्रिकी कर लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार, जो लोग बिक्री नहीं देते थे उन्हें मौत की सजा दी जाती थी। कौटिल्य ने महाजनी प्रणाली का विस्तृत वर्णन किया है। संभवतः ब्याज की राशि 15% थी।

मुद्रा

मौर्यों की आधिकारिक मुद्रा ‘पन’ थी। मौर्य काल के दौरान, आहत मुद्राएं भी प्रचलित थीं। अर्थशास्त्र में शब्द ‘रूपक’ का इस्तेमाल सिक्के के लिए किया जाता है। इस काल में सोने के सिक्के को ‘सुवर्ण’ और ‘पाद’, चांदी के सिक्के को ‘कर्षापण’ और ‘धारण’ और तांबे के सिक्के को ‘मासक’, ‘काकनी’ और ‘अर्ध्दकाकणी’ कहा जाता था। मयूर, पर्वत और आधा चाँद छाप के चांदी के सिक्के मौर्य साम्राज्य की स्वीकृत मुद्राएँ थीं। घटती क्रम में क्रमश: आढ़क, प्रस्था, कुडुम्ब, पल एवं सुवर्णमास तौल की इकाई थी।

सामाजिक स्थिति

मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभाजित किया है – दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालन, शिल्पी एवं कारीगर, योध्द, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य एवं सभासद। इनमें सबसे ज्यादा संख्या किसानों की थी। कोई भी अपनी जाति से बाहर शादी नहीं कर सकता था, न ही वह अपना पेशा बदल सकता था, इसका अपवाद दार्शनिक ब्राह्मण था।

मेगस्थनीज के अनुसार, दार्शनिक को गलत भविष्यवाणी करने पर जीवन भर मौन रहना पड़ता था। कौटिल्य नौ प्रकार के दासों की चर्चा करता है, जबकि मेगस्थनीज के अनुसार, भारत में ‘दास प्रथा’ प्रचलित नहीं थी।

सम्भ्रान्त घराने की महिलाएँ अक्सर घर के अंदर रहती थीं, जिसे कौटिल्य ने “अनीष्कासिनी” कहा था। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं को “रूपजीबा” कहा जाता था।

धार्मिक स्थिति

वैदिक धर्म मौर्य काल में प्रचलित था, लेकिन कर्मकांड प्रधान वैदिक धर्म कुलीन ब्राह्मणों और क्षत्रियों तक सीमित था। कुछ ब्राह्मण वेदों में शामिल थे, वेदों को पढ़ाते थे और बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। कौटिल्य ने भारत के प्राचीन धर्म को त्रयी कहा है। डायोनिसस और हेराक्लीज़ की चर्चा मेगास्थनीज ने धार्मिक प्रणाली में की गई है। जिसकी पहचान क्रमशः ‘शिव और कृष्ण ’से की गई है। पतंजलि के अनुसार मौर्य काल में देवमूर्तियों को भेजा जाता था, उन्हें बनाने वाले कारीगरों को ‘देवताकारु’ कहा जाता था।

मौर्य साम्राज्य का पतन

अशोक के बाद कुणाल शासक बना, जिसे ‘दिव्यवदन’ में धर्मविवर्धन कहा गया। ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार, मगध में कुणाल के शासक के समय कश्मीर का शासक जालोक था। कुणाल, संप्रति, दशरथ, शालिशुक और वृहद्रथ के नाम अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त होते हैं। बृहद्रथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था, जिसकी हत्या 185 ई.पू. में उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की थी।

पूर्व मौर्य काल के प्रमुख राज्य वंश

हर्यक वंश

मगध पर शासन करने वाला पहला राजवंश हर्यक वंश था। बिम्बिसार (544 -492 ईसा पूर्व) इस वंश का पहला शाही शासक था। बिम्बिसार को श्रेणिक के नाम से भी जाना जाता है। इसने गिरिव्रज (राजगृह) को मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया। इसने विजय और विस्तार की नीति को अपनाते हुए अंग देश पर अधिकार कर लिया। अंग का शासक ब्रह्मदत्त था। उन्होंने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए। पहला कोसलराज की पुत्री एवं प्रसेनजित की बहन कोशलदेवी से, दूसरा वैशाली की लिच्छवि राजकुमारी चेल्लना से तथा तीसरा पंजाब के मुद्राकुल के प्रधान की पुत्री क्षेमा से। बिम्बिसार ने अवंती राजा चंडप्रधोग महासेन से भी युद्ध किया। बाद में पीलिया रोग से ग्रस्त प्रधोत के इलाज हेतु राजवैध जीवक को भेजा था। बिम्बिसार बुध्द का समकालीन तथा बौध्द धर्मानुयायी था। उन्होंने वेलवन नामक एक जंगल बौद्धों को दान कर दिया था।

अजातशत्रु (492 -460 ईसा पूर्व) को कुणिक नाम से जाना जाता है। उसने अपने पिता को मारकर सिंहासन प्राप्त किया। कोशल और काशी को हराने के बाद, उसने प्रसेनजित की बेटी वजिरा से शादी की। अपने मंत्री सुनीध एवं वर्षकार की मदद से, वज्जि संघ में फुट डालने और संघ को समाप्त करने में सफल रहा। वैशाली के खिलाफ युद्ध में, इसने रथमुसल और महाशिलाकंटक जैसे हथियारों का इस्तेमाल किया था। अपनी राजधानी राजगृह को मजबूत बनाया। उसने राजगृह में स्तूप बनवाया और पहले बौद्ध संगीति का आयोजन किया। अजातशत्रु के बाद “उदयिन” (460 -444 ई. पू.) शासक बना। उसके पश्चात अनिरुध्द मुंड तथा दर्शक ने शासन किया।

शिशुनाग वंश

शिशुनाग 412 ईसा पूर्व में सिंहासन पर बैठा। महावंश के अनुसार, वह लिच्छवी राजा की एक वेश्या पत्नी का पुत्र था। पुराणों के अनुसार वह एक क्षत्रिय था। इसने सबसे पहले मगध के मजबूत प्रतिद्वंद्वी राज्य अवन्ति पर वहां के शासक अवंतिवर्द्धन के विरुद्ध विजय प्राप्त की और उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार मगध की सीमा पश्चिम मालवा तक फैल गई। तदुपरान्त उसने वत्स को मगध में मिलाया। मगध में वत्स और अवंती के विलय ने पश्चिम से पाटलिपुत्र के लिए व्यापार मार्ग का रास्ता खोल दिया। शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया। शिशुनाग एक शक्तिशाली शासक था जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को अपनी राजधानी बनाया। 394 ई. पू. में इसकी मृत्यु हो गई।

कालाशोक – यह शिशुनाग का पुत्र था, यह शिशुनाग के 394 ई. पू. मृत्यु के बाद मगध का शासक बना। महावंश में इसे कलाशोका कहा गया है और पुराणों में इसे काकवर्ण कहा गया है। इसने 28 वर्षों तक शासन किया। कलशोका की अवधि मुख्य रूप से दो महत्वपूर्ण घटनाओं के लिए जानी जाती है – वैशाली में दूसरी ‘बौद्ध परिषद’ की बैठक और मगध की राजधानी को पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में स्थानांतरित करना।

बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार, राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय काकवर्ण को महापद्यानंद नाम के व्यक्ति ने चाकू मारकर घायल कर दिया था। 366 ईसा पूर्व कलाशोका की मृत्यु हो गई। महाबोधिवास के अनुसार, कलशोका के दस पुत्र थे, जिन्होंने 22 वर्षों तक मगध पर शासन किया। 344 ईसा पूर्व शिशुनाग वंश का अंत हुआ और नंदा वंश का उदय हुआ।

नन्द वंश

“महापद्यानंद” ने शिशुनाग वंश के अंतिम शासक महानंदिन की हत्या करके नंद वंश की नींव रखी। बौद्ध ग्रंथ महाबोधिवंश में उसे उग्रसेन तथा पुराणों में सर्वक्षत्रांतक एवं एकराट कहा गया है। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में उसके कलिंग विजय का उल्लेख है। इसी अभिलेख से पता चलता है की महापद्यनन्द विजय चिहृ के रूप में कलिंग से जिन की मूर्ति उठा लाया था। धनानंद इस राजवंश के अंतिम शासक थे, जिसे ग्रीक लेखक अग्रमीज एवं जेन्द्रमीज कहते है। इस समय के दौरान सिकंदर ने उत्तर पश्चिम भारत पर आक्रमण किया। 322 ईसा पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु चाणक्य की मदद से धनानंद की हत्या कर दी और मौर्य वंश की नींव रखी।

परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण तथ्य

  • पूर्व मौर्य काल में 16 महाजनपद थे।
  • इस काल में भूमि मापन की इकाई को ‘निवर्तन’ कहा जाता था।
  • मौर्य काल के सिक्कों को “आहत सिक्का” कहा जाता था।
  • प्रसिध्द व्याकरण विद पाणिनि पूर्व मौर्य काल से सम्बंधित थे।
  • भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण ईरान के हखामनी वंश के राजाओं द्वारा पूर्व मौर्य काल में किया गया था।
  • यूनानी आक्रमण सिकंदर महान द्वारा भारत पर इसी काल में किया गया था।
  • सिकंदर महान का गुरु अरस्तु था। सिकंदर खैबर दर्रा द्वारा भारत में प्रवेश किया था।
  • सिकंदर ने झेलम नदी के तट पर पोरस के साथ युध्द किया जिसे “वितस्ता या हाइडेस्पीज” का युध्द कहा जाता है।
  • भारत से लौटते समय सिकंदर का मृत्यु बेबीलोन नामक स्थान पर 323 ई. पू. में हो गया।

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