स्वामी सहजानंद सरस्वती (Swami Sahajanand Saraswati) की. ठीक 70 साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर में स्वामीजी का महाप्रयाण हुआ था. इन 7 दशकों में देश-दुनिया कहां से कहां चली गयी, लेकिन जिन किसानों की खुशहाली और शोषण से मुक्ति के लिए स्वामी सहजानंद ने जीवन के आखिरी सांस तक संघर्ष किया, उनकी हालत दिन-ब-दिन बदतर होती गयी. आज किसानों की बात तो खूब होती है, लेकिन उनके हक और अधिकार को लेकर आवाज उठाने वाला नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता. ऐसी स्थिति में स्वामी सहजानंद सरस्वती की कमी अखरती है. उनकी याद बरबस ही आ जाती है.
स्वामी सहजानंद का आरंभिक जीवन
ऐसे किसान हितैषी महात्मा का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में सन 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था. घर वालों ने नाम रखा था नौरंग राय. पिता बेनी राय सामान्य किसान थे. बचपन में ही मां का छाया उठ गया. लालन-पालन चाची ने किया. आरंभिक शिक्षा जलालाबाद में हुई. मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे यूपी, जो तब युक्तप्रांत कहलाता था, में सातवां स्थान प्राप्त किया. सरकार से छात्रवृति मिली तो आगे की पढ़ाई सुगम हुई. पढ़ाई के दौरान ही मन अध्यात्म की ओर रमने लगा. घर वालों को बच्चे की प्रवृति देख डर हुआ तो जल्दी ही शादी करा दी. लेकिन साल भर के भीतर ही पत्नी भी चल बसी. दूसरी शादी की बात चली तो वे घर से भाग गये और काशी चले गये.
संन्यास दीक्षा
काशी प्रवास ने उनके जीवन की राह बदल दी. शंकराचार्य की परंपरा के एक संन्यासी अच्युतानंद से दीक्षा लेकर वे संन्यासी बन गये. बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थो के भ्रमण, देवदर्शन और सदगुरु की खोज में बिताये. 1909 में फिर से काशी आए और स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहणकर दंड धारण किया. अब उनका नाम हो गया दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती. कहते हैं बहुत समय तक स्वामी जी का ठिकाना रहा शिवाला घाट का राजगुरु मठ, जहां अभी युवा संन्यासी दंडी स्वामी अनंतानंद सरस्वती जी पीठाधीश्वर हैं. वे राजगुरु मठ के गौरवशाली इतिहास को ध्यान में रख इसकी खोयी गौरव को परम्परानुसार पुनर्प्रतिष्ठापित करने में लगे हैं.
सहजानंद का समाज सुधार आंदोलन
स्वामीजी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालें तो मोटे तौर पर उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है. पहला खंड है- जब वे संन्यास धारण करते हैं. काशी में रहते हुए धर्म की कुरीतियों और बाह्याडम्बरों के विरुद्ध मोर्चा खोलते हैं. जातीय गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार-ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं. भूमिहार ब्राह्मणों को पुरोहित्य कर्म के लिए तैयार करते हैं. संस्कृत पाठशालाएं खोलकर संस्कृत और कर्मकांड की शिक्षा प्रदान करते हैं. लोगों के विशेष आग्रह पर शोधोपरांत ‘भूमिहार-ब्राह्मण परिचय’ नामक ग्रंथ लिखते हैं, जो बाद में ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तर’ नाम से प्रकाशित होता है. बाद के कुछ वर्ष काशी औऱ फिर दरभंगा में रहकर संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा दर्शनों के गहन अध्ययन में बिताते हैं. यह क्रम सन् 1909 से 1920 तक चलता है. उनका मुख्य कार्यक्षेत्र बक्सर जिले का सिमरी और गाजीपुर जिले का विश्वम्भरपुर गांव रहता है. अपने अभियान को गति देने और उसको संस्थानिक स्वरुप देने के उद्देश्य से काशी से उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण नामक अखबार भी निकाला. लेकिन बाद में एक सहयोगी ने प्रेस और अखबार को हड़प लिया. उऩकी किताबों की बिक्री से मिले पैसे भी खा गया. स्वामीजी को इस घटना से गहरी पीड़ा भी हुई. मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में उन्होंने इसकी चर्चा की है. अपने स्वजातीय लोगों की स्वार्थपरायणता से स्वामीजी को बाद तक काफी पीड़ा मिली. एक बार तो बिहार के बेहद प्रभावी नेता सर गणेशदत्त के चालाकी भरे वर्ताव से स्वामीजी इतने दुखी हुए कि उनसे सारा संबंध तोड़ लिया और जब मुंगेर में जातीय सम्मेलन कर सर गणेशदत्त को सभापति चुनने की कोशिश हुई तो स्वामीजी ने भूमिहार-ब्राह्मण महासभा को सदा के लिए भंग कर दिया. यह सन् 1929 की बात है.
आजादी की लड़ाई और जेल यात्रा
स्वामी सहजानंद के जीवन का दूसरा चरण आजादी की लड़ाई में कूदने और गांधीजी के अनन्य सहयोगी के तौर पर काम करने, कई बार जेल जाने और गांधीजी से विवाद होने पर अलग हो जाने, के कालखंड को माना जा सकता है. महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात 5 दिसम्बर, 1920 को पटना में हुई थी. स्थान था मौलाना मजहरुल हक का आवास, जो अब पटना का सदाकत आश्रम है, जिसमें अभी कांग्रेस का प्रदेश मुख्यालय है. गांधीजी के अनुरोध पर स्वामीजी कांग्रेस में शामिल हो गये. साल भर के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये और दल-बल के साथ अहमदाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए. अगले साल उनकी गिरफ्तारी और साल भर की कैद हुई. आजादी के संघर्ष के दौरान उनको गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, फैजाबाद, लखनऊ आदि जेल में रहना पड़ा. पहली बार जब जेल से छूटे तो बक्सर के सिमरी और आसपास के गांवों में चरखे से खादी का उत्पादन कराया और आजादी की लौ को गांवों-किसानों तक पहुंचाया. सिमरी में रहते हुए स्वामीजी का सृजन कार्य भी चलता रहा. सिमरी में रहते हुए ही उन्होंने सनातन धर्म के जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों पर आधारित कर्मकलाप नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की रचना की, जिसका प्रकाशन काशी से हुआ. सिमरी के पंडित सूरज नारायण शर्मा उनकी विरासत को बाद तक संभाला. उन्होंने अपने गांव सिमरी में स्वामी सहजानंद और संत विनोबा के नाम पर कॉलेज खोला. स्वामीजी जिस कुटिया में रहते थे, उसे पुस्तकालय बना दिया. दुर्भाग्य से पिछली सदी में नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में उनकी रहस्यमय ढंग से आरा में हत्या कर दी गयी. ठीक वैसे ही जैसा पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ हुआ था. रेलवे ने पंडित सूरज शर्मा की मौत को हादसा बताकर मामले को रफा-दफा कर दिया.
असहयोग आंदोलन में भागीदारी
आजादी की लड़ाई में गांधीजी का असहयोग आंदोलन जब बिहार में जोर पकड़ा तो स्वामीजी उसके केन्द्र में थे. उन्होंने गांव-गांव घूमकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोगों को खड़ा किया. ग्रामीण समस्याओं को नजदीक से जाना. लोग यह देख अचरज में पड़ जाते थे कि यह कैसा संन्यासी है, जो मठ में जप, तप, साधना करने की बजाए दलितों-वंचितों की बस्तियों में घूम रहा है, उनके दुख-दर्द को समझने में अपनी ऊर्जा को खपा रहा है. यह वो समय था जब स्वामीजी भारत को समझ रहे थे. वे बिहटा के पास सीतारामआश्रम से आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन की गतिविधियों को संचालित करते रहे. अमहारा गांव के पास नमक बनाकर सत्याग्रह किया. गिरफ्तार हुए. पटना के बांकीपुर जेल भेजे गये. अंतिम बार वे अप्रैल 1940 में हजारीबाग जेल गये, जहां दो साल तक सश्रम सजा काटने के बाद 8 मार्च, 1942 को रिहा हुए. तब उस जेल में जयप्रकाश नारायण समेत देश के कई शीर्ष नेता बंद थे.
किसान सभा की नींव
आजादी की लड़ाई में कांग्रेस में काम करते हुए उनको एक अजूबा अनुभव हुआ. उन्होंने पाया कि अंग्रेजी शासन की आड़ में जमींदार और उनके कारिंदे गरीब खेतिहर किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. गरीब लोग तो अंग्रेजों से ज्यादा उनकी सत्ता के दलालों से आतंकित है. किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है. युवा संन्यासी का मन एक नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ. उन्होंने किसानों को गोलबंद करना शुरू किया. सोनपुर में बिहार प्रांतीय किसान सभा का उनको अध्यक्ष चुना गया. यह नवंबर, 1928 की बात है. इसी मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया. उन्होंने कांग्रेस के मंच से जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की. करीब आठ साल बाद अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में उनके ही सभापतित्व में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई.
गांधीजी से मोहभंग
1934 में बिहार में प्रलयंकारी भूकंप आया. भूकंप से केन्द्र था मुंगेर. जानमाल की भारी क्षति हुई थी. किसानों की तो कमर टूट गयी थी. स्वामी सहजानंद राहत कार्य में जी जान से लगे थे. लेकिन इस दौरान उनको जमींदारों द्वारा किसानों पर लगान वसूलने और जुल्म करने की खबरें लगातार मिल रही थी. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर तमाम चोटी के नेता भूकंप राहत के काम में लगे थे. पटना का पीली कोठी तब रिलीफ कमेटी का दफ्तर था. गांधीजी भी आते तो वहीं ठहरते थे. एक दिन स्वामीजी ने गांधीजी को बिहार के किसानों की स्थिति से अवगत कराना चाहा. मेरा जीवन संघर्ष में स्वामीजी ने लिखा है कि गांधीजी पहले तो किसानों की स्थिति से अनभिज्ञ थे फिर जमींदारों और उनके कांग्रेसी मैनेजरों पर उनको बहुत भरोसा था. किसानों की मदद के सवाल पर जब गांधीजी ने दरभंगा महाराज के पास जाने और उनसे सहायता मांगने की बात कही तो स्वामीजी आग बबूला हो गये और गांधीजी को खरी-खोटी सुनाते हुए चले गये. जेल में गांधीजी के चेलों की कथनी-करनी में अंतर और खिलाफत आंदोलन के दौरान उनके रुख को स्वामीजी पहले ही देख चुके थे. पटना की घटना के बाद उन्होंने गांधीजी के साथ 14 साल पुराना अपना संबंध तोड़ लिया.
किसान संगठन को बनाया जीवन का ध्येय
स्वामी सहजानंद सरस्वती को भारत में संगठित किसान आंदोलन का जनक माना जाता है. उन्होंने अंग्रेजी शासन के दौरान शोषण से कराहते किसानों को संगठित किया और उऩको जमींदारों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया, लेकिन बिल्कुल अहिंसक तरीके से. लाठी के बल पर. कहते थे- कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिंदाबाद.
स्वामीजी ने नारा दिया था, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चित हुआ-
‘’जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा.
यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन भी वहीं चलायेगा’’..
गांधीजी से अलग होने के बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती के जीवन का तीसरा चरण शुरू होता है. उन्होंने देशभर में घूम घूमकर किसानों की रैलियां की. स्वामीजी के नेतृत्व में सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई लड़ाईयां किसानों ने लड़ीं. इस दौरान जमींदारों और सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई. उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावां के बकाश्त सत्याग्रह ऐतिहासिक हैं. इस कारण बिहार के किसान सभा की पूरे देश में प्रसिद्धि हुई. दस्तावेज बताते हैं कि स्वामीजी की किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी. किसान सभा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी.
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का सहयोग
गांधीजी से मोहभंग होने और किसान आंदोलन में मन प्राण से जुटे स्वामी सहजानंद की नेताजी सुभाषचंद्र बोस से निकटता रही. दोनों ने साथ मिलकर समझौता विरोधी कई रैलियां की. स्वामीजी फारवॉर्ड ब्लॉक से भी निकट रहे. एक बार जब स्वामीजी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया. सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियां भी स्वामीजी को वैचारिक दृष्टि से अपने करीब मानते रही. यह स्वामीजी का प्रभामंडल ही था कि तब के समाजवादी और कांग्रेस के पुराने शीर्ष नेता मसलन, एमजी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकार्यी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुंदरैया, भीष्म साहनी, बंकिमचंद्र मुखर्जी जैसे तब के नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे. जेल में सृजन और गीता पाठ जेल में नियमित तौर पर उनका गीता के पठन-पाठन का काम चलता था. अपने साथी कैदियों की प्रार्थना पर उन्होंने गीता भी पढ़ाई. जेल की सजा काटते हुए स्वामीजी ने मेरा जीवन संघर्ष के अलावे किसान कैसे लड़ते हैं, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण, खेत-मजदूर, झारखंड के किसान और गीता ह्रदय नामक छह पुस्तकें लिखी.
स्वामीजी ने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय-मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति आदि. उनकी आजादी की लड़ाई और किसान संघर्षों की दास्तान- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो, गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज है. उन्होंने श्रीमदभागवद का भाष्य ‘गीता ह्रदय’ नाम से लिखा.
सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी
मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में स्वामीजी ने लिखा है – “मैं कमाने वाली जनता के हाथ में ही, सारा शासन सूत्र औरों से छीनकर, देने का पक्षपाती हूं. उनसे लेकर या उनपर दबाव डालकर देने-दिलवाने की बात मैं गलत मानता हूं. हमें लड़कर छीनना होगा. तभी हम उसे रख सकेंगे. यों आसानी से मिलने पर फिर छिन जाएगा यह ध्रुव सत्य है. यों मिले हुए को मैं सपने की संपत्ति मानता हूं ” . स्वामीजी कहते थे कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें पक्के कार्यकर्ताओं और नये नेताओं का दल तैयार करना होगा.
यही सपना संजोये वह शास्वत विद्रोही संन्यासी 26 जून, 1950 को बिहार के मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये. आज देश में स्वामीजी के नाम पर दर्जनों स्कूल, कॉलेज, पुस्कालय हैं. अनेक स्मारक हैं और उन सबसे ज्यादा देशभर में उनके नाम पर चलने वाले सामाजिक संगठन हैं. लेकिन स्वामीजी के सपनों का हिन्दुस्तान अभी दूर की कौड़ी है. जिस किसान को उन्होंने भगवान माना और रोटी को भगवान से भी बड़ा बताया था. उसकी दुर्दशा जगजाहिर है.
सौजन्य : news18.com